Thursday, April 2, 2009

आखिर बदला गाँव (कविता)

कहा गए स्नेह व रिश्ते ,गयी कहा गाँव की रीति ।
चलता नही हल किसान गाँव में ,दिखे न राह बटोही ।
चले न समय से पछवा पुरवैया ,पवन हुआ निर्मोही ।।
वर्षा ऋतू में चले लूक जैसे बदल गयी है निति।
कहा गए स्नेह व रिश्ते ,गयी कहा गाँव की रीति।।
किसी बैग में मिले न मानुष करता वन रखवाली ।
दिखे न गाँव में हाथीघोडे गाँव के मुखिया दुवारी ।।
चारो तरफ़ दबंगई नेता ,आंख दिखा करते राजनीती ।
कहा गए स्नेह व रिश्ते ,गयी कहा गाँव की रीति ।।
भइया गए बम्बई कमाने ,टेलीफोन न भेजे पाती ।
गावे माई रोवे फूटी-फूटी ,बात न चितवा लुभाती ।।
रिश्ते की डोरी टूट गयी क्या कहा गयी एक की दूजे प्रीति।
कहा गए स्नेह व रिश्ते ,गयी कहा गाँव की रीति ।।
वृक्ष कर हे मानुष ,करता क्यों प्रकृति लडाई ।
आज है चाहत पानी की तो पछवा चले बयारी ।।
मानुष करते तंग प्रकृति को ,प्रकृति भुलाई भीती ।
कहा गए स्नेह व रिश्ते ,गयी कहा गाँव की रीति ।।
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------------पंकज तिवारी सहज "संतोष"----------
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