Friday, October 30, 2009

भारत और भाई-भतीजावाद

इसे अच्छी, बुरी या भद्दी बात कहें लेकिन भाई भतीजावाद एक ऐसी सच्चाई है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह बड़े पैमाने पर भारत में हमेशा से मौजूद रही है और आज जैसी स्थितियाँ हैं उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि यह हमेशा बनी रहने वाली बीमारी है।
अपने चारों ओर नजर डालिए और आप पाएँगे कि सभी पेशेवर क्षेत्रों में, राजनीति हो या उद्योग, बड़े बहुराष्ट्रीय संगठन हों या खेल या फिर नौकरशाही की बात ही क्यों न हो सभी जगह भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। इसलिए हरेक विवेकशील मस्तिष्क में यह बड़ा सवाल पैदा होता है कि क्या यह ऐसी चीज है जिसके बिना समाज चल सकता है और क्या समाज को इसके बिना चलना चाहिए।
देश में भाई भतीजावाद की जड़ें भारतीय समाज के बुनियादी ढाँचे में ही बनी हुई हैं। एक भारतीय परिवार का तानाबाना कुछ इस तरह बना होता है कि बच्चे (और विशेष रूप से बेटे) वहीं से शुरू करते हैं जहाँ पर उनके पिता या चाचा ने छोड़ा हो। भारत में व्यापक रूप से फैले भाई-भतीजावाद की शुरुआत भी यहीं से होती है। इस कारण से एक डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, एक इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बनता है, एक व्यवसायी का बेटा अपने पिता के व्यवसाय को संभालता है और एक राजनीतिज्ञ का बेटा भी राजनीतिज्ञ ही बनता है।
और यह यह सब पाने के लिए हम सभी भाई-भतीजावाद का सहारा लेते हैं। कारण यह होता है कि प्रत्येक बच्चा इतना योग्य या प्रतिभाशाली नहीं होता जितना कि उसके माता-पिता हों, प्रत्येक बच्चा यह भी नहीं चाहता है कि वह भी वही करे जो कि उसके दादा-पिता करते रहे हों, लेकिन ज्यादातर स्थितियों में भारतीय समाज बच्चों को वही करने को विवश करता है। और यहीं से भाई-भतीजावाद की भी शुरुआत होती है। यह मान भी लिया जाए कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कि आरामदायक जीवन जीने के लिए चाहते हैं कि उनके पिता और चाचा उनके लिए रास्ता बनाएँ लेकिन ऐसे लोग भी हैं जा ेकि अपने संबंधियों के लिए सबसे अच्छा करना चाहते हैं, इसलिए यह करते हैं लेकिन अगर आप अपने जीवन और अपने आसपास के लोगों के जीवन पर गौर करें तो पाएँगे कि आश्चर्यजनक रूप से भाई-भतीजावाद का मूल कारण भारत में प्रचलित सामाजिक दबाव है जिसका प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है। भारत में प्रत्येक बच्चे को अपने माता-पिता के नाम को आगे बढ़ाने का काम मिलता है और उसे उनसे बेहतर करके दिखाना होता है। इसके साथ ही माता-पिता को भी यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके बच्चे वास्तव में उनसे बेहतर करके दिखाएँ। अन्य दूसरे समाजों की तरह जिनमें कॉलेज जाने की उम्र तक बच्चे पूरी तरह से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन जाते हैं, भारत में स्थिति ठीक उल्टी होती है। यहाँ माता-पिता और बच्चों के पेशेवर जीवन हमेशा ही आपस में जुड़े होते हैं और उनकी तुलना की जाती है। और दूसरे लोग इसी चश्मे से बच्चों और उनके माता-पिता के जीवन का आकलन करते हैं। अगर कोई बच्चा कुछ अलग करना चाहता है और तो न केवल परिवार के लोग ही उसके चुनाव पर ऊँगलियाँ उठाते हैं वरन परिवार के बाहर भी लोग बच्चे के भविष्य पर सवाल खड़े करने से नहीं चूकते हैं। यह एक कारण है कि क्यों भारतीय पेशेवर लोगों का जीवन भी बड़े पैमाने पर परम्पराओं और रीतिरिवाजों की बेड़ियों से जकड़ा होता है। इस कारण से परंपरागत और रुढ़िवादी पेशों का चुनाव आज भी सबसे ज्यादा होता है।और यह न केवल पुरानी पीढ़ी की ओर से किया जाता है वरन इसे वर्तमान पीढ़ी भी प्रश्रय देती है क्योंकि भाई-भतीजावाद से सभी के लिए बहुत कुछ आसान हो जाता है और इससे समाज के लोग भी चुप हो जाते हैं। पर जब तक यह रवैया नहीं बदलता है भारत में बहुत से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में हमेशा ही प्रतिभाओं की कमी देखी जाती रहेगी। अब यह क्षेत्र शोध का हो या सैन्य बलों का अथवा समाजसेवा का। जब तक माता-पिता और बच्चे, चाचा-भतीजा और समाज, सभी मिलकर भाई- भतीजावाद को नकारते नहीं हैं और निजी रुचि तथा प्रतिभा को सम्मान नहीं देते हैं तब तक भारत के पेशेवर लोगों के परिदृश्य में बहुत अधिक बदलाव नहीं देखा जा सकेगा और बहुत सारी छिपी हुई प्रतिभा लोगों के सामने नहीं आ पाएँगी।---------------------पंकज  तिवारी सहज  

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